
हिन्दू विवाह अधिनियम-Hindu Marriage Act के तहत तलाक की प्रक्रिया को लेकर हाल तक तकरीबन एक जैसी व्याख्या होती रही है, जिसमें यह स्पष्ट रूप से माना गया कि पति या पत्नी विवाह के एक वर्ष के बाद ही तलाक-Divorce की याचिका दाखिल कर सकते हैं। इसी कानूनी व्याख्या के आधार पर देशभर की परिवार न्यायालयें-Family Courts भी फैसले करती रही हैं। लेकिन हाल ही में इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच-Allahabad High Court Lucknow Bench ने इस मुद्दे पर महत्वपूर्ण टिप्पणी करते हुए स्थिति को और अधिक स्पष्ट कर दिया है।
हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 14 क्या कहती है?
हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 14 में स्पष्ट प्रावधान है कि विवाह के एक वर्ष के भीतर कोई भी पति या पत्नी कोर्ट में तलाक की याचिका नहीं दाखिल कर सकते। इसका मकसद यह है कि विवाहित जोड़े को अपने रिश्ते को सुधारने और समझौते का मौका दिया जाए। यह कानून इस सिद्धांत पर आधारित है कि विवाह एक पवित्र बंधन है और इसे जल्दबाज़ी में समाप्त करने की अनुमति नहीं दी जा सकती।
हालांकि, इस अधिनियम में एक अपवाद (Exception) भी जोड़ा गया है। अगर यह साबित हो जाए कि किसी एक पक्ष को विवाह से ‘असाधारण कठिनाई’ या ‘गंभीर पीड़ा’ हो रही है, तो वह विशेष परिस्थिति में एक वर्ष के भीतर भी तलाक की अनुमति अदालत से मांग सकता है। लेकिन ऐसी मंजूरी सीधे नहीं मिलती, इसके लिए अदालत की पूर्व अनुमति (Leave of the Court) आवश्यक होती है।
इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच का फैसला
गुरुवार, 29 मई 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ बेंच ने एक याचिका पर सुनवाई करते हुए तलाक के नियमों को लेकर स्थिति और स्पष्ट की। कोर्ट ने यह दोहराया कि हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा 14 में वर्णित एक वर्ष की समयसीमा वैधानिक रूप से अनिवार्य है और इससे कम अवधि में याचिका केवल विशेष परिस्थिति में ही दाखिल की जा सकती है।
न्यायालय ने कहा कि परिवार न्यायालयों को इस प्रावधान को कठोरता से लागू करना चाहिए ताकि जल्दबाज़ी में लिए गए तलाक के निर्णयों से बचा जा सके। कोर्ट ने यह भी जोड़ा कि यदि एक पक्ष को तत्काल राहत की जरूरत है, तो वह विशेष अनुमति के लिए हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटा सकता है।
तलाक की याचिका पर अदालत का रुख
कोर्ट ने कहा कि कानून का उद्देश्य केवल विवाह समाप्त करना नहीं है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करना है कि विवाहित जोड़े को अपने रिश्ते को सुधारने का पर्याप्त अवसर मिले। ऐसे में अदालतें तलाक की याचिकाओं को लेकर बहुत ही सावधानीपूर्वक दृष्टिकोण अपनाती हैं। यदि यह प्रतीत होता है कि याचिका जल्दबाजी में दी गई है और संबंधों को सुधारने का पूरा प्रयास नहीं किया गया है, तो अदालत उस याचिका को अस्वीकार भी कर सकती है।
विशेष परिस्थिति में तलाक की अनुमति
हाईकोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि यदि कोई दंपति यह साबित कर देता है कि उसे शारीरिक या मानसिक रूप से गंभीर पीड़ा हो रही है, या दहेज उत्पीड़न, घरेलू हिंसा जैसी परिस्थिति उत्पन्न हो गई है, तो वे अदालत से विशेष अनुमति लेकर एक वर्ष से पहले भी तलाक की याचिका दाखिल कर सकते हैं। लेकिन इस स्थिति में उन्हें अदालत को पर्याप्त प्रमाण देने होंगे कि उनका मामला सामान्य से हटकर है और इसमें विशेष हस्तक्षेप की आवश्यकता है।
पारिवारिक मामलों में न्यायालय की संवेदनशीलता
हाईकोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि पारिवारिक विवादों में अदालत की भूमिका केवल कानूनी प्रक्रिया का पालन करवाने की नहीं, बल्कि समाजिक संतुलन बनाए रखने की भी होती है। इसलिए अदालतें हर मामले की गहराई से जांच करती हैं और कोशिश करती हैं कि पति-पत्नी को साथ रहने का एक और मौका मिले। यदि ऐसा संभव नहीं होता, तभी तलाक की अनुमति दी जाती है।
तलाक से जुड़े अन्य महत्वपूर्ण तथ्य
यह ध्यान देना आवश्यक है कि हिन्दू विवाह अधिनियम केवल हिन्दू, सिख, जैन और बौद्ध धर्म के अनुयायियों पर लागू होता है। इसके अलावा, यह अधिनियम सिविल मैरिज, मुस्लिम या क्रिश्चियन विवाहों पर लागू नहीं होता। इन समुदायों के लिए अलग-अलग विवाह और तलाक कानून हैं।
अदालत के इस हालिया फैसले से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि भारतीय न्याय व्यवस्था विवाह संस्था को केवल एक कानूनी अनुबंध के रूप में नहीं, बल्कि एक सामाजिक व्यवस्था के रूप में देखती है, जिसे बचाने का प्रयास पहले किया जाना चाहिए।